Saturday, September 17, 2011

SANKALP

संकल्प

जगाकर मृगतृष्णा छुप गया है क्षि‍ति‍ज के पार जाकर,
सुनाकर पपीहे की पीक बैठा है मग्न होकर अंबर पर,
कराकर मधुप को अमि‍य पान औ,
रखकर लक्ष्योदीप को मेरे कर्मपथ पर,
करा रहा है अहसास अपनी प्रभुता का मेरी नश्वैरता पर।
टूटा जा रहा है मन का वि‍श्वास,
रूठने को है हि‍म्‍मत,
हाथो से छूट रही है रस्सी घोड़े की,
पंक में जाने को है रथ-चक्र।
सामने स्वयं बनकर बैठा है सारथी अरि‍ का,
ली थी प्रति‍ज्ञा जि‍सको मारने की,
करना था साम्राज्य कि‍सी के हि‍त अर्पण,
शायद नि‍भा नहीं पाऊँगा वचन।
वरदान मॉंगकर उससे,
जीत चाहूँगा नहीं,
लगाऊँगा जोर जो अब भी शेष है,
रूधि‍र जो बाकी है इन धमनि‍यों में,
लि‍खूँगा इति‍हास इन्हीं बचे हुए कुछ बूदों से।

- द्वारा

नि‍लेश कुमार गौरव आई.आर.एस.ई. 2008
इरि‍सेन, पुणे