क्यों कामरेड?
धर्म तो अफीम थी न ?
फिर ?
अफीम के बिचड़े को,
किताब,पढ़ाई, सोच औ चौराहों पर,
बोना ही नहीं, जबरन उगाना निर्जीव फसल की तरह,
भूख से छछनते आंत,
कब तक पचायेगी 'प्लास्टिक राइस' ?
जान कर बंदूकों की कीमतें,
मांग रही है कारतूसों के बदले अनाज,
लाद दिये हो कंधों पर आग्नेयास्त्र और ग्रेनेड,
कहां से आते हैं इतने पैसे,
जन समर्थन इतना सच में है क्या ? बोलो न कामरेड,
'क्रांति' की बीन पर अब करता नहीं यकीन,
सर्वहारा देख रहा है कामरेड,
आपके तख्त औ ताज के मंशे,
धर्म तो अफीम थी न ?
फिर ?
अफीम के बिचड़े को,
किताब,पढ़ाई, सोच औ चौराहों पर,
बोना ही नहीं, जबरन उगाना निर्जीव फसल की तरह,
भूख से छछनते आंत,
कब तक पचायेगी 'प्लास्टिक राइस' ?
जान कर बंदूकों की कीमतें,
मांग रही है कारतूसों के बदले अनाज,
लाद दिये हो कंधों पर आग्नेयास्त्र और ग्रेनेड,
कहां से आते हैं इतने पैसे,
जन समर्थन इतना सच में है क्या ? बोलो न कामरेड,
'क्रांति' की बीन पर अब करता नहीं यकीन,
सर्वहारा देख रहा है कामरेड,
आपके तख्त औ ताज के मंशे,
श्यूडो इंटेलेक्चुअलिज्म के डंके,
बनाते आ रहे हैं तुष्टिकरण की गीली जमीन,
'क्रांति' की बीन पर अब करता नहीं यकीन,
सर्वहारा देख रहा है कामरेड,
सर्वहारा देख रहा है कामरेड,
आपके तख्त औ ताज के मंशे,
फिर भी जिंदा रह जाते हे मार्क्स और लेनिन !
फिर भी जिंदा रह जाते हे मार्क्स और लेनिन !
अगर छिपाते नहीं पंथ होने के मंसूबे,
झूठे तटस्थता के तिकड़म ही बनते तुम्हारे पंथ के कुटिल रास्ते,
आते ही रहे हैं ‘उपासक’ जत्थे,तब धकेल नहीं पाती घर की ड्योढ़ी और चारदीवार,
तुम पर भी होती निछावर सर्व धर्म समभाव /
-निलेश कुमार गौरव