रगों में उफ!उफनता भाप का उबाल है,
धधक सांसों में रही एक आग है,
क्या करेगी ये धुआँऐं,बौछारें,गोलियाँ
कदमों में तुम्हारे शोषकों की धमकियाँ निरूपाय है।
करो रोपन चतुर्दिक एक नये आदर्श के आधार का,
विफल है आस सिंचन का,किसी सुधार का|
भरो एक लोच भी तमाम यंत्रों को हिलाकर,
पङे है ऐसे असंख्य मूर्तवत् औ लोष्ठवत् ,
तजो नेह पूजन ऐसे कच्चे विरासतों से,
उग न पाये दंश-वृक्ष अब इतिहासों से।
क्षितिज को भेद कर देखो,
मार्ग एक अरूणाभ है,
पीढी नयी है,
दहाङता प्रवाह है।
-निलेश कुमार गौरव
Sunday, December 23, 2012
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