"रखूँ अक्षुण्ण ये अभ्रकुसुम"
रखूँ अक्षुण्ण,रखूँ अक्षुण्ण
रखूँ अक्षुण्ण ये अभ्रकुसुम
हिमकिरीट के फुनगी से
दीप्त मयूख के तारों तक,
रजनी के सुप्त बयारों से
अब्धि के उग्र ज्वारों तक,
हो प्रखर तुम्हारा विजयधुन,
रखूँ अक्षुण्ण ये अभ्रकुसुम|
खुशियों से लदी बहारों में
रहूँ मेलों में,श्रृंगारों में,
या शोकसिक्त गलियारों में,
सपनों के बुझे दियारों में,
माथे पे छाँव तिरंगा हो,
औ,रहे निरंतर भाव उष्म,
रखूँ अक्षुण्ण,रखूँ अक्षुण्ण
रखूँ अक्षुण्ण ये अभ्रकुसुम|
-निलेश कुमार गौरव
(चौसठवें गणतंत्र दिवस के अवसर पर लिखित)
Saturday, January 26, 2013
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