Wednesday, October 1, 2014

खुले आसमानों के नीचे

आसमानों में,
घुमङते बादलों में,
बचपन से ही देखी है,
हजार तस्वीरें,
कुछ जानी हुई,
कुछ अनजान,
मगर
परस हेतु
विकल,विह्वल,
जोशिश से भरे हुए,
शर्मीले ।
आज आयी है फिर से,
एक तस्वीर,
अम्बर की छाती को चीर,
मेरे निमिख को रोके,औ,
कहते हुए,
“कोई और रास्ता नहीं था
सच दिखलाने के लिए,
आज तुम भी बरसों बाद
लेटे हो
खुले आसमानों के नीचे,
कोई विवशता तो नहीं है न ?
या दर्पणों के कांचों ने
किरकिरी मचाई है
तुम्हारी आँखों में ?
मैंने कहा था न
जब विधुलेख निशा के आगोश में,
हालाँकि तुम्हारा हक भी होगा,
अभिनय कर रहे होगे
निष्ठा औ दुनियवी का,
तृप्ति के सागर से दूर,
आओगे दौङे हुए,
मेरी चाहसिक्त आँखों की
बारिश में भींगने,
मैं धोऊँगी हरदम
कुछ मैले छींटें होंगें
तेरे धवल तन पर,
शर्मसार मत होना अपनी बेबसी पर,
मैं तो तेरी ही हूँ सदा से,
हाँ,अब भी रोज आती हूँ,
बरसने,
तूम मिलते ही नहीं,
हवाओं का भी कुछ दोष होगा,
बिखेर देती होंगी आकृतियों को,
और तूम्हें अहसास न होता है,
मुझसे मिलने का,
हर रोज आऊँगी,
देखना हो तो
आया करो
खुले आसमानों के नीचे। ”
-निलेश कुमार गौरव







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