समसामयिकी खिंचती है,हर रोज मेरी लेखनी को,
कर दूँ परित्याग क्यों? प्रेम की अभिव्यक्ति को,
प्रेम है पूजन,पुष्प चंदन तेरा महावर,
प्रेम है तरपन,महबूब वक्ष है नद सरोवर,
सत्संग का है प्यास ऐसी,
छोड़ दूँ क्यों प्रेम भजन को,
तू ही लीला,तू ही कीर्तन,
दृग-कोरकों का यह निर्झरण,
स्वीकार कर लो आचमन को.
-निलेश कुमार गौरव
Monday, October 17, 2016
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